साल 1920 अपू अपने माता-पिता के साथ अपने गांव के घर को छोड़ बनारस के मकान में बस जाता है। जहां उसका पिता हरिहर पुजारी के रूप में काम करना वापस से प्रारंभ करता है और साथ ही अपना कुछ नया लिखने के काम को भी आगे बढ़ा रहा होता है, लेकिन इसी बीच उसे बुखार हो जाता है और देखते ही देखते उसकी मृत्यु हो जाती है। घर को चलाने के लिए ना चाहते हुए भी सर्वजाया को घर-घर जाकर नौकरानी का काम करना पड़ता है, नंदा बाबू की मदद से अपू और सर्वजाया वापस बंगाल लौटते हैं और मनसपोटा नाम के गांव में रहने लगते हैं। जहां अप्पू अपने पिता की तरह एक पुजारी के रूप में काम करना प्रारंभ करता है। वह बगल के स्कूल में पढ़ना चाहता है जिसके लिए उसकी मां की मंजूरी भी मिलती है, वो पढ़ाई में बहुत अच्छा रहता है जिस वजह से उस स्कूल के प्रधानाध्यापक भी उसे काफ़ी पसंद करते हैं।
जैसे-जैसे वह अपने किशोर अवस्था में पहुंचता है आगे के पढ़ाई के लिए कोलकाता जाना चाहता है,अपू को छात्रवृत्ति भी मिलती सर्वजाया अपने बेटे से दूर नहीं होना चाहती अपने पति के प्रारंभिक दिनों के तरह लेकिन फिर भी वो अपू के खुशी के लिए जाने देती है। अपू ट्रेन से कोलकाता के लिए रवाना होता है और वहां वह स्कूल के बाद एक प्रिंटिंग प्रेस में काम भी करता है, उसे शहर का जीवन काफी अच्छा लगता है और गांव से अब वह धीरे-धीरे कटने लगता है, जिस वजह से गांव भी बहुत कम आता है, अपने बेटे से दूरी और सर्वजाया का अकेलापन उसे काफी बीमार कर देता है, लेकिन वो यह बात अप्पू को नहीं बताती, उसे डर होता है कि कहीं इससे उसकी पढ़ाई में कोई रुकावट ना आ जाए। जब अपु को इस बारे में पता चलता है तो वह गांव आता है लेकिन तब तक उसकी मां मर चुकी होती है। अप्पू के चाचा उसे वहां रहकर अपनी मां का अंतिम संस्कार करने को कहते हैं लेकिन वह कहता है कि अंतिम संस्कार वो कोलकाता में ही करेगा और इस तरह फिर से कोलकाता की ओर वापस चल देता है।
विदेश में इस फ़िल्म को आलोचकों द्वारा काफी सराहा गया। इसने 11 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीते, जिसमें वेनिस फिल्म फेस्टिवल में गोल्डन लायन और क्रिटिक्स अवार्ड शामिल हैं और ये दोनो अवॉर्ड जीतने वाली पहली फ़िल्म बन गई। इस फ़िल्म को मिली आलोचकों की प्रशंसा ने सत्यजीत रे को एक और सीक्वल, अपुर संसार (1959) बनाने के लिए मजबूर कर दिया।